बुधवार, 6 अप्रैल 2011

सज़ा ( लघु कथा)


      
" देखो मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं, लेकिन शर्त ये है कि तुम कहानी सुनते समय "हूं" जरूर कहते जाओगे।"
" ठीक है भई ठीक है। मैं, "हूं" कहता जाऊंगा। तुम कहानी तो सुनाओ !"
"सुनाऊं ?"
"हूं"
"पिछले दिनों, नगर निगम के चुनाव थे।"
"हूं"
"तो उस चुनाव में मेरा छोटा भाई भी ,चुनाव जीत गया।"
"हूं"
"कुछ दिन विजयोल्लास चलता रहा।"
"हूं"
"मेरी छुट्टियां खत्म हो गईं। मै अपनी ड्यूटी पर वापस लौट गया। अब सरकारी नौकरी है कोई प्राईवेट धन्धा तो है नहीं। घर सौ किलो मीटर दूर नौकरी करते दस बरस बीत गए।"
"हूं"
"वापस नौकरी पर लौटते हुए कल्पना करने लगा कि छोटा भाई चुनाव जीता है। अब तो उसके प्रभाव से अपने घर के आसपास तबादला करवा लूंगा।"
"हूं"
"जब मैं अपने दफ़्तर ड्यूटी पर पंहुचा, तो मेरे हाथ में एक पत्र थमा दिया गया।"
"हूं"
"वह मेरे तबादले के आदेश थे।"
"तो तबादला हो गया ?"
"सुनो !"
"हूं"
"वह मेरे तबादले के आदेश ही थे, लेकिन..।’
"लेकिन क्या ?"
"अब मेरा तबादला और भी दूर एक नई और अनजान जगह पर कर दिया गया।"
"हूं"
"पता चला कि मेरा छोटा भाई, जीतने के बाद विपक्ष के खेमे में चला गया।"
"हूं" 
"और सज़ा मुझे दे दी गई।...... कहानी खत्म!"
"लो यह भी कोई कहानी है।"
"यही तो आज की कहानी है, जो समानान्तर चलती रहती है।"

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