शनिवार, 16 अप्रैल 2011

भय-बोध


 किशना की नौकरी का पहला दिन था। अन्धेरी रात। खेत का चक्कर काट वह ट्यूबवैल पर लौट आया। उसे चाय की तलब महसूस हुई। चूल्हेनुमा ईन्टों में आक की सूखी लकड़ियां , पते खोंस कर जेब से माचिस निकाली। माचिस खाली थी। कमरे के आले में अंगुलियां फिरा कर देखा, वहां भी दूसरी माचिस नहीं थी। किशना ने चारपाई पर बेखबर सोए दीनू को हिलाते हुए पूछा-" दीने,,, ओ.. दीने! चाय पीएगा ?" लेकिन दीनू ने उंघते हुए करवट बदल ली। 
"माचिस कहां है ?" किशना ने एक बार फिर दीनू को झिंझोड़ा।
"आले में होगी ।" 
"वहां नहीं है ?" 
"तो फिर सो जा  ना!" 
इसके बाद किशना ने  दीनू को दो तीन बार फिर से उठाने की कोशिश की लेकिन वह नहीं जगा। किशना की चाय पीनी की तलब और बलवती हो गई। उसे थोड़ी ही दूरी पर कहीं आग जलती दिखाई दी। पतीले में पानी, चाय पत्ती चीनी व दूध डाल कर वह उसी दिशा में चला गया। वहां आग के पास कोई नहीं था। उसने पतीला आग पर रख दिया। थोड़ी देर में चाय तैयार हो गयी। ट्यूबवैल पर लौट कर उसने इत्मीनान से चाय पी और सो गया। 
अगली सुबह दीनू ने किशना से पूछा-" चाय पी"
"हां"
"तुमने चूल्हे में आग तो जलाई नहीं , फिर चाय कहां बनाई?"
"वहां आग जल रही थी... वहां बना कर लाया!" किशना ने पश्चिम दिशा की ओर ईशारा कर बतया।
" वहां... वहां तो शमशान भूमि है !" दीनू की आंखें फैल गईं।
किशना क्षणभर को विस्मित रहा गया। भय बोध के बाद उसके अन्तर्मन में सिहरन सी होने लगी। उसे लगा कि चाय उसके भीतर भय के रूप में उतर रही है।
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