गुरुवार, 31 मार्च 2011

दूध को कृत्रिमता से बचाने की कवायद में राठ


दूधों नहाओ पूतों फलो। यह आशीर्वचन अब बीते ज़माने की बात होकर रह गया है। भौतिकता की दौड़ मैं जहां दूध जैसा पौष्टिक द्रव्य कृत्रिमता के बर्तन में सिमट कर रह गया है, वहीं बढती जनसंख्या के विस्फोटक दौर में परिवार को सीमित रखना जरूरी हो गया है। देश की जनसंख्या बढने के साथ-साथ कई जरूरी चीज़ों के अलावा दूध की खपत भी बढी है। इसी कारण दूध का उत्पादन बढाने के कई तरीके अपनाए जाने लगे। मशीनीकरण के माध्यम से दूध भी थैलियों में पैक होकर बाजारों में आने लगा जो काफी हद तक लोगों की जरूरत को पूरा करने में सहायक सिद्ध हो रहा है। लेकिन ताजे दूध की परम्परा को कायम रखने में वर्षों पूर्व हनुमान गढ में आकर बसे मुस्लिम गौपालक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
रियासतकाल में सिंचाई प्रणाली के विकास से पहले इस क्षेत्र के लोगों का मुख्य धंधा पशुपालन ही था। क्षेत्र की अधिकतर भूमि बारानी थी और पूर्णतया वर्षा पर ही निर्भर थी। इस लिये पशुओं के लिए चरागाह की कोई समस्या नहीं थी।तब हनुमानगढ के चारों ओर घना बीहड़ हुआ करता था। इसी बीहड़ से होकर घग्घर नदी का पानी गुज़रता था। उन दिनों इस क्षेत्र में औसत वर्षा हुआ करती थी, जिससे पशुओं को प्राकृतिक घस फूस प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हुआ करता था।
उन्हीं दिनों बीकानेर और लूणकरनसर क्षेत्र में गौपालक अपनी गाएं लेकर इस क्षेत्र में आया करते थे।शुरूआती दिनों दिनों में बकरियों और भेड़ों के रेवड़ के रेवड़ भी वर्षा काल और बसंन्त ऋतु में यहां दिखाई देते थे। गौपालकों में मुख्यतया लूणकरनसर तहसील क्षेत्र के राठ मुसलमान इस इलाके को अपनी शरणस्थली बनाते रहे हैं। इस तहसील के जैतपुर टाहलीवाला,खुमाना, मनोहरिया बिलौचां वाली, खरबारा तथा महाजन आदि गांवों व कस्बों के मुसलमान गौपालक कफी अर्से से पानी और चारे की बहुतायत के कारण यहां आते रहे। जब उन्हें अपने गांवों में वर्षा होने की खबर यहां मिलती तो वे अपने पशुओं को लेकर गांव लौट जाते। लेकिन समय में आए बदलाव के साथ इनमें भी अधिकांश ने हनुमानगढ को ही अपना स्थाई निवास बना लिया है।
वर्षों पूर्व हनुमानगढ की दुर्गा कालोनी में छप्पर बना कर रहने वाले ये मुस्लिम गौपालक आज शहर के सैक्टर बारह, प्रेमनगर तथा बिजली कालोनी के समीप पक्के मकान बना कर प्रगतिशीलता की दौड़ में शामिल हो चुके हैं।वर्षों पूर्व यहां आकर स्थाई रूप से बसे करीब तीन सौ परिवारों का कबीला अब वटवृक्ष का रूप धारण कर चुका है। अब करीब इनके तीस हजार परिवार हनुमानगढ के अलावा पंजाब के अबोहर, फाजिल्का, फिरोजपुर तथा लुधियाना तक के शहरों में जा बसे हैं।  इनमें से अधिकांश मूलतः मनोहरिया एवं खुमाना गांव के हैं। वर्षों पूर्व इनकी पुश्तैनी भूमि आवप्त हो गई। मुआवजे से प्राप्त राशि का उपयोग इन्होंने यहां पक्के बना कर किया। पंजाब के शहरों में भी इन्होनें अपने स्थाई ठिकाने बना लियें हैं। वर्तमान समय में हनुमानगढ सहित पंजाब के शहरों में डेअरी विकास में राजस्थान के इन राठ मुसलमान भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। जब तक वे अपने गांवों से हनुमानगढ आकर बसे थे वे तब तक वे केवल गौपालक के रूप में ही जाने जाते थे। लेकिन जब इन्होंने पंजाब में प्रवेश किया तब वहां डेयरी के तौर तरीके पंजाब की तरह अपनाने शुरू कर दिये। चूंकि पंजाब में भैंस के दूध का प्रचलन ज्यादा है, इस लिए इन राठ गौपलकों ने पंजाब में रह कर भैंस पालन शुरू कर दिया। अपनी पशुपालन की कला को उन्होनें नया रूप देकर पंजाब में दुग्ध व्यवसाय को अपनाया। अब पंजाब के अनेक क्षेत्र इनकी दूध आपूर्ती से प्रभावित होते हैं।
इन गौपालकों की पुरानी पीढी बिल्कुल अनपढ और देहाती परम्पराओं पर चलने वाली थी। उनकी ओर से बेचे जाने वाले दूध का हिसाब किताब खरीददार पर ही निर्भर रहता था। लेकिन नई पीढी को नए जमाने की हवा लग चुकी है। पुरानी पीढी की वेशभूषा आज भी मर्दों में वही तहमत, कुर्ता और पगड़ी तथा औरतों में घेरदार घाघरा, पूरी बाजू का लम्बा कुर्ता और दुपट्टा है। इनमें नई पीढी की महिलाएं सलवार-कमीज़ और दुपट्टा तथा नौजवान पेंट-शर्ट पहनने लगे हैं। पुरानी पीढी के लोग जहां साईकिल चलाने से भी डरते थे, आज उनकी नई पीढी के अधिकांश युवकों के पास मोटर साईकिल हैं। पंजाब के कई इलाकों में तो इन पशुपालकों की नई पीढी दूध की सप्लाई के लिए चार पहिया वाहनों का भी इस्तेमाल किया जाने लगा है।
पुरानी पीढी के लोगों का जो मुख्य हुनर को मिलना चाहिये था वह था पशुओं की बीमारियों के प्रति इन लोगों की असीम जनकारी। आज जो डिग्रीधारी डाक्टर और वैद्य किसी पशु के रोग का सही निदान और उपचार नहीं कर पाते जबकि उनमें से अधिकतर पुरानी पीढी के इन गौपालकों के परिवारों के मुखिया बिना किसी वैज्ञानिक उपकरण के केवल देख या हाथ से छूकर रोग ढूंढ लेते हैं। पुरानी पीढी की यह विलक्षण प्रतिभा आश्चर्य चकित कर देने वाली है। कहा जाता है कि गर्भवती गाय के पेट पर हाथ फेर कर ये लोग भविष्यवाणी कर देते थे कि गाय बछड़ा देगी या बछिया। वह भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य होती थी। 
नई पीढी में इस विलक्षण प्रतिभा का हृस होता जा रहा है।अब ऎसे सयानों की संख्या नगण्य हो चाली है जो अपने पशुओं के रोगों का स्वतः इलाज़ कर लें। वैज्ञानिक तौर तरीकों ने इन्हें भी प्रभावित कर सुविधावादी बना दिया है। पूर्व में इन गौपालक परिवारों का संचालन अधिकतर महिलाओं द्वारा ही किया जाता था। घर की आमद-खर्च का हिसाब रखना , परिवार के सदस्यों का उचित भरण-पोषण और पशुओं के चारा आदि की व्यवस्था भी इनकी ही जिम्मे रह्ती थी। पुरूषों का काम गायों की सार-सम्भाल और चरागाह तक ही लाना ले जाना होता था। तब गायों से प्राप्त दूध के विक्रय-विपणन का समस्त कार्य महिलाएं ही किया करती थीं। अब यह कार्य पुरूष करने लगे हैं। हालांकि आर्थिक पक्ष पर महिलाओं का प्रभाव आज भी स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है। 
   फसल की भूसी को कीमती बना दियाः- गौपालक फ़लक शेर बताते हैं कि यहां घग्घर नाली क्षेत्र में पैदा होने वाले चावल की भूसी क्षेत्र के किसान इस लिए जला दिया करते थे कि उनका खरीददार नहीं होता था। उन्हें अगली फसल हेतु खेत खाली करने के लिए भूसी को जलाना पड़ता था। जब ये गौपालक यहां आने लगे तो इस भूसी को इन्होंने चारे के रूप में उपयोग करना शुरू कर दिया। तब से इस भूसी का भरपूर कारोबार हो रहा है। उन्होंने बताया कि चावल की भूसी में गेहूं की तूड़ी जितने ही गुण हैं। उन्होंने बताया कि जब चने के दाम गेहूं से कम थे तब से अब तक पशुओं को यही जिन्स खिलाया जा रहा है।**    

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