सोमवार, 28 मार्च 2011

प्रसाद ( लघु कथा)


 उस दिन मंगलवार था। हनुमान मंदिर के नज़दीक एक देहाती ठर्रा पी कर बेसुध पड़ा था। तभी एक पुलिस कान्स्टेबल भी उधर आ धमका। बेसुध पड़े शराबी को देख कर वह गुर्राया-" कौन है... बे तूं ?"
शराबी ने आंखे झपझपाईं। झुरझुरी ली। बड़ी मुश्किल से उठ कर बैठ गया। मौके पर भीड़ जमा हो गयी। कान्स्टेबल ने तैश में आकर एक लात शराबी की कमर में दे मारी। फिर उसे हाथ से उठाने का नाटक करते हुए, उसकी जेब टटोली। शराबी की जेब खाली पाकर कांन्स्टेबल और भी तैश में आ गया। शराबी को तीन-चार घूंसे जमा कर बोला-" स्साला... मंगल के रोज़ भी दारु पी कर आ गया।"
फिर शराबी को वही छोड़ वह कांन्स्टेबल धन्ना हलवाई की दुकान पर जा रुका-"अरे भाई धन्ना..पांच रुपये का प्रसाद देना !"
" अरे ! मालिक...आज पांच रुपये का ही क्यों ? हर मंगलवार को तो ग्यारह रुपये का प्रसाद चढाते हैं आप ?"      हलवाई ने आंखे तरेर कर पूछा।
" लेकिन आज तो आधा ही प्रायश्चित करना है। हाथ मारा.. लेकिन जेब खाली थी। इसलिए...आज पांच का ही दो!" इतना कहते हुए कांन्स्टेबल ने पांच रुपये का सिक्का धन्ना हलवाई की तरफ उछाल दिया।****

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