शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

स्वरन्तर




स्वार-एकः
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"सेठ जी भूखी आत्मा को रोटी दे ! भगवान तेरा भला करेगा !"
यह एक भिखरिन का स्वर था। एक हाथ से लाल रंग की गोटा लगी ओढनी माथे तक खींच कर, कलाईयों से ऊपर तक पहने हाथी दान्त के चूड़े को घुमा कर ठीक करने लगी वह। अर्द्धवक्ष ढका हुआ। दूसरे हाथ में आठ-दस रोटियां उठाए भिखारिन की दृष्टी ढाबे के भीतर काम कर रहे युवक पर केन्द्रित हो गयी। क्षण भर बाद वह युवक अपने हाथ में दो रोटियां और सब्जी लेकर भिखारिन के पास आया-" ये ल्ले .. खा ले ! पानी भी ला दूं ?"
"पिला ,,दे !"भिखारिन चपातियां और सब्जी अपने कब्जे में लेते हुए कहा।
"लेकिन तूं हमारा काम भी कर दे !" युवक ने खीसे निपोरतेहुए कहा।
"कोण सा काम ? क्या कहता है ?" भिखारिन की त्यौरियां चढ गयीं।
युवक ने भिखारिन के तेवर भांप लिये। उसने बात का रुख बदलते हुए कहा-"अरे यही काम,,,दुकान पर बर्तन धोने का !"
"नहीं,, हमें तो आज गांव जाना है !" भिखारिन सहज भाव से आगे बढ गई। युवक खिसियाता हुआ सा ढाबे के भीतर चला गया।


स्वर-दोः
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"बाबा कुछ खाने को मिल जाएगा ? सुबह से भूखा हूं,,, कुछ नहीं खाया ! दया करो !" एक क्षीण पुरुष भिखारी का स्वर। ढाबे के बाहर अपन्ग भिखारी बैसाखियां टिकाए खड़ा था। पिचके गाल, खिचड़ी बाल, और धंसी हुई आंखें।
ढाबे से वही युवक बाहर आया- "क्या है अबे ?" 
भूख और जर्जरता के कारण भिखारी दुबारा बोल नहीं पाया। उसने इशारे से कुछ खाने को मांगा।  
"चल चल यहां क्या तेरे बाप का खज़ाना गड़ा पड़ा था क्या ? चल फूट ले कोई ग्राहक आने दे !"
अपंग भिखारी हतप्रभ, निराश बैशाखियां पटकता हुआ आगे बढ गया।
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गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

आत्म-सन्तुष्टि ( लघु-कथा )


धनकु ने बीसियों गालियां दीं, एक झापड़ भी रसीद कर दिया। गोरली सब सहन कर गई। उसने धनकु ने बीसियों गालियां दीं, एक झापड़ भी रसीद कर दिया। गोरली सब सहन कर गई। उसने केवल हल्का सा विरोध किया। धनकु का सुबह सुबह शराब पीना, गोरली को बर्दाश्त नहीं होता और धनकु को उसके शराब पीने के बारे में कुछ कहना सहन नहीं होता। तभी यह बावेला खड़ा हो गया, सरे बाजार, सुबह सवेरे। 
गोरली ने सड़क के किनारे फ़टी हुई टाट बिछाई। पेटी, पालिश, ब्रश और रंग बिरंगी शीशियां सजा कर बैठ गई, मर्दों के जूते गांठने, पलिश करने को। उसके नथुने अभी भी फूले हुए हैं। माथे की त्यौरियां चढी हुई हैं, लेकिन वह चुप-चाप बैठी है, मन के गुबार को भीतर ही दबाए।
अचानक उसकी नज़र, रेलवे बाऊन्डरी में जमा भीड़ की तरफ चली गई। वहां अन्नपूर्णा सेवा समिति द्वारा सक्रान्ति के अवसर पर गरीबों को सूजी का हलवा बान्टा जा रहा था। गोरली भी पंक्ति में जा कर बैठ गई। जितना हलवा मिला उसे पत्तल में समेट कर वह वापस लौट आई। टाट पर रख वह एक निवाला मुंह की तरफ ले गई,,,, लेकिन खाने का मन नहीं हुआ। हलवे वाला पत्तल समेट कर, पेटी में रख दिया और वह बैंक के पिछवाड़े धनकु को बुलाने चली गई। धनकु लड़खड़ाता हुआ, गोरली का सहरा लिए टाट पर आ कर बैठ गया। गोरली ने पेटी से हलवा निकाल कर धनकु के आगे रख दिया। धनकु ने आंखें मिचमिचा कर गोरली की तरफ देखा। गले को खरखरा कर साफ किया। फिर धपाधप हलवा खाकर उठा और लड़खड़ाता हुआ बैंक के पिछवाड़े वापस चला गया। जब धनकु आंखों से ओझल हो गया तो गोरली ने पत्तल में पड़ा, एक ग्रास हलवे का लौंदा उठा कर मुंह में डाल लिया। हलवे का वह बचा हुआ ग्रास निगलते हुए उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कुरहट फैल गयी। उसे लगा जैसे भीतर का गुबार आत्मसन्तुष्टि के शीतल जल में घुल गया हो।
************************************************केवल हल्का सा विरोध किया। धनकु का सुबह सुबह शराब  की तरफ ले गई,,,, लेकिन खाने का मन नहीं हुआ। हलवे वाला पत्तल समे

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

भय-बोध


 किशना की नौकरी का पहला दिन था। अन्धेरी रात। खेत का चक्कर काट वह ट्यूबवैल पर लौट आया। उसे चाय की तलब महसूस हुई। चूल्हेनुमा ईन्टों में आक की सूखी लकड़ियां , पते खोंस कर जेब से माचिस निकाली। माचिस खाली थी। कमरे के आले में अंगुलियां फिरा कर देखा, वहां भी दूसरी माचिस नहीं थी। किशना ने चारपाई पर बेखबर सोए दीनू को हिलाते हुए पूछा-" दीने,,, ओ.. दीने! चाय पीएगा ?" लेकिन दीनू ने उंघते हुए करवट बदल ली। 
"माचिस कहां है ?" किशना ने एक बार फिर दीनू को झिंझोड़ा।
"आले में होगी ।" 
"वहां नहीं है ?" 
"तो फिर सो जा  ना!" 
इसके बाद किशना ने  दीनू को दो तीन बार फिर से उठाने की कोशिश की लेकिन वह नहीं जगा। किशना की चाय पीनी की तलब और बलवती हो गई। उसे थोड़ी ही दूरी पर कहीं आग जलती दिखाई दी। पतीले में पानी, चाय पत्ती चीनी व दूध डाल कर वह उसी दिशा में चला गया। वहां आग के पास कोई नहीं था। उसने पतीला आग पर रख दिया। थोड़ी देर में चाय तैयार हो गयी। ट्यूबवैल पर लौट कर उसने इत्मीनान से चाय पी और सो गया। 
अगली सुबह दीनू ने किशना से पूछा-" चाय पी"
"हां"
"तुमने चूल्हे में आग तो जलाई नहीं , फिर चाय कहां बनाई?"
"वहां आग जल रही थी... वहां बना कर लाया!" किशना ने पश्चिम दिशा की ओर ईशारा कर बतया।
" वहां... वहां तो शमशान भूमि है !" दीनू की आंखें फैल गईं।
किशना क्षणभर को विस्मित रहा गया। भय बोध के बाद उसके अन्तर्मन में सिहरन सी होने लगी। उसे लगा कि चाय उसके भीतर भय के रूप में उतर रही है।
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सोमवार, 11 अप्रैल 2011

भद्रकाली मेला....


हनुमानगढ जिला मुख्यालय से लगभग सात किलों मीटर दूर भद्र काली मन्दिर पर प्रति वर्ष चैत्र सुदी अष्टमी और नवमी को दो दिन विशाल मेला लगता है।  यह मन्दिर साम्प्रदायिक सदभावाना की बहुत बड़ी मिसाल है। इस मन्दिर पर सभी धर्मों के लोगों की श्रद्धा है और सभी अपना शीश नवाते है। कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण बादशाह अकबर के आदेश पर बीकानेर रियासत के छठे महाराजा राम सिंह ने करवाया था। 

इस ऎतिहासिक मन्दिर की बनावट दूसरे स्थानों के मन्दिरों से भिन्न है। मन्दिर का ग़ुम्बज़ मस्जिद की तरह बना हुआ है। इस मन्दिर की स्थापना की घटना भी बड़ी रोचक बताई जाती है। बादशाह अकबर एक बार बीकानेर के राजा रामसिंह के साथ इस क्षेत्र से गुज़रे। उस समय यहां सघन वन था। भूख प्यास से बेहाल वे लोग जब वर्तमान मन्दिर स्थल के नज़दीक पहुंचे तो उन्हें टीले पर एक औरत खड़ी दिखाई दी। उन्होंने अपनी भूख प्यास का जिक्र करते हुए भोजन पानी की व्यवस्था करने का अनुरोध किया। उस महिला ने तुरन्त घने बीहड़ जंगल में उनके खाने पीने की व्यवस्था कर दी। इस पर महाराजा अकबर आश्चर्य चकित रह गए। उन्होंने उस महिला को दैवी शक्ति माना तथा अपनी ओर से सेवा करने का अवसर देने का आग्रह किया। इस पर उस महिला ने वहां मां काली का मन्दिर बनाने को कहा। तब अकबर ने राजा रामसिंह को यह मन्दिर बनाने का आदेश दिया। कहते हैं कि यह मन्दिर तब का बना हुआ है।
हिन्दू, मुस्लिम, सिख , इसाई सभी के लिए भद्रकाली आराध्य देवी है। सभी तरह के धर्मावलम्बी यहां एक ही कतार में खड़े होकर मां भद्रकाली के दर्शन करते हैं और एक ही स्थान पर प्रसाद ग्रहण करते हैं। यहां से प्रत्येक व्यक्ति एकता और भाई चारे का सन्देश लेकर जाता है। वर्तमान में इस मन्दिर के रखरखाव का जिम्मा राजस्थान देव स्थान विभाग का है।  लेकिन यह विभाग राजस्व एकत्र करने के कार्य को ही प्रमुखता देता है। श्रद्धालुओं की सुविधाओं के लिए शहर की समाज सेवी संस्थाएं मेले के दिनों में दिन रात जुटी रहती है।
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बुधवार, 6 अप्रैल 2011

सज़ा ( लघु कथा)


      
" देखो मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं, लेकिन शर्त ये है कि तुम कहानी सुनते समय "हूं" जरूर कहते जाओगे।"
" ठीक है भई ठीक है। मैं, "हूं" कहता जाऊंगा। तुम कहानी तो सुनाओ !"
"सुनाऊं ?"
"हूं"
"पिछले दिनों, नगर निगम के चुनाव थे।"
"हूं"
"तो उस चुनाव में मेरा छोटा भाई भी ,चुनाव जीत गया।"
"हूं"
"कुछ दिन विजयोल्लास चलता रहा।"
"हूं"
"मेरी छुट्टियां खत्म हो गईं। मै अपनी ड्यूटी पर वापस लौट गया। अब सरकारी नौकरी है कोई प्राईवेट धन्धा तो है नहीं। घर सौ किलो मीटर दूर नौकरी करते दस बरस बीत गए।"
"हूं"
"वापस नौकरी पर लौटते हुए कल्पना करने लगा कि छोटा भाई चुनाव जीता है। अब तो उसके प्रभाव से अपने घर के आसपास तबादला करवा लूंगा।"
"हूं"
"जब मैं अपने दफ़्तर ड्यूटी पर पंहुचा, तो मेरे हाथ में एक पत्र थमा दिया गया।"
"हूं"
"वह मेरे तबादले के आदेश थे।"
"तो तबादला हो गया ?"
"सुनो !"
"हूं"
"वह मेरे तबादले के आदेश ही थे, लेकिन..।’
"लेकिन क्या ?"
"अब मेरा तबादला और भी दूर एक नई और अनजान जगह पर कर दिया गया।"
"हूं"
"पता चला कि मेरा छोटा भाई, जीतने के बाद विपक्ष के खेमे में चला गया।"
"हूं" 
"और सज़ा मुझे दे दी गई।...... कहानी खत्म!"
"लो यह भी कोई कहानी है।"
"यही तो आज की कहानी है, जो समानान्तर चलती रहती है।"

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