गुरुवार, 31 मार्च 2011

दूध को कृत्रिमता से बचाने की कवायद में राठ


दूधों नहाओ पूतों फलो। यह आशीर्वचन अब बीते ज़माने की बात होकर रह गया है। भौतिकता की दौड़ मैं जहां दूध जैसा पौष्टिक द्रव्य कृत्रिमता के बर्तन में सिमट कर रह गया है, वहीं बढती जनसंख्या के विस्फोटक दौर में परिवार को सीमित रखना जरूरी हो गया है। देश की जनसंख्या बढने के साथ-साथ कई जरूरी चीज़ों के अलावा दूध की खपत भी बढी है। इसी कारण दूध का उत्पादन बढाने के कई तरीके अपनाए जाने लगे। मशीनीकरण के माध्यम से दूध भी थैलियों में पैक होकर बाजारों में आने लगा जो काफी हद तक लोगों की जरूरत को पूरा करने में सहायक सिद्ध हो रहा है। लेकिन ताजे दूध की परम्परा को कायम रखने में वर्षों पूर्व हनुमान गढ में आकर बसे मुस्लिम गौपालक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
रियासतकाल में सिंचाई प्रणाली के विकास से पहले इस क्षेत्र के लोगों का मुख्य धंधा पशुपालन ही था। क्षेत्र की अधिकतर भूमि बारानी थी और पूर्णतया वर्षा पर ही निर्भर थी। इस लिये पशुओं के लिए चरागाह की कोई समस्या नहीं थी।तब हनुमानगढ के चारों ओर घना बीहड़ हुआ करता था। इसी बीहड़ से होकर घग्घर नदी का पानी गुज़रता था। उन दिनों इस क्षेत्र में औसत वर्षा हुआ करती थी, जिससे पशुओं को प्राकृतिक घस फूस प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हुआ करता था।
उन्हीं दिनों बीकानेर और लूणकरनसर क्षेत्र में गौपालक अपनी गाएं लेकर इस क्षेत्र में आया करते थे।शुरूआती दिनों दिनों में बकरियों और भेड़ों के रेवड़ के रेवड़ भी वर्षा काल और बसंन्त ऋतु में यहां दिखाई देते थे। गौपालकों में मुख्यतया लूणकरनसर तहसील क्षेत्र के राठ मुसलमान इस इलाके को अपनी शरणस्थली बनाते रहे हैं। इस तहसील के जैतपुर टाहलीवाला,खुमाना, मनोहरिया बिलौचां वाली, खरबारा तथा महाजन आदि गांवों व कस्बों के मुसलमान गौपालक कफी अर्से से पानी और चारे की बहुतायत के कारण यहां आते रहे। जब उन्हें अपने गांवों में वर्षा होने की खबर यहां मिलती तो वे अपने पशुओं को लेकर गांव लौट जाते। लेकिन समय में आए बदलाव के साथ इनमें भी अधिकांश ने हनुमानगढ को ही अपना स्थाई निवास बना लिया है।
वर्षों पूर्व हनुमानगढ की दुर्गा कालोनी में छप्पर बना कर रहने वाले ये मुस्लिम गौपालक आज शहर के सैक्टर बारह, प्रेमनगर तथा बिजली कालोनी के समीप पक्के मकान बना कर प्रगतिशीलता की दौड़ में शामिल हो चुके हैं।वर्षों पूर्व यहां आकर स्थाई रूप से बसे करीब तीन सौ परिवारों का कबीला अब वटवृक्ष का रूप धारण कर चुका है। अब करीब इनके तीस हजार परिवार हनुमानगढ के अलावा पंजाब के अबोहर, फाजिल्का, फिरोजपुर तथा लुधियाना तक के शहरों में जा बसे हैं।  इनमें से अधिकांश मूलतः मनोहरिया एवं खुमाना गांव के हैं। वर्षों पूर्व इनकी पुश्तैनी भूमि आवप्त हो गई। मुआवजे से प्राप्त राशि का उपयोग इन्होंने यहां पक्के बना कर किया। पंजाब के शहरों में भी इन्होनें अपने स्थाई ठिकाने बना लियें हैं। वर्तमान समय में हनुमानगढ सहित पंजाब के शहरों में डेअरी विकास में राजस्थान के इन राठ मुसलमान भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। जब तक वे अपने गांवों से हनुमानगढ आकर बसे थे वे तब तक वे केवल गौपालक के रूप में ही जाने जाते थे। लेकिन जब इन्होंने पंजाब में प्रवेश किया तब वहां डेयरी के तौर तरीके पंजाब की तरह अपनाने शुरू कर दिये। चूंकि पंजाब में भैंस के दूध का प्रचलन ज्यादा है, इस लिए इन राठ गौपलकों ने पंजाब में रह कर भैंस पालन शुरू कर दिया। अपनी पशुपालन की कला को उन्होनें नया रूप देकर पंजाब में दुग्ध व्यवसाय को अपनाया। अब पंजाब के अनेक क्षेत्र इनकी दूध आपूर्ती से प्रभावित होते हैं।
इन गौपालकों की पुरानी पीढी बिल्कुल अनपढ और देहाती परम्पराओं पर चलने वाली थी। उनकी ओर से बेचे जाने वाले दूध का हिसाब किताब खरीददार पर ही निर्भर रहता था। लेकिन नई पीढी को नए जमाने की हवा लग चुकी है। पुरानी पीढी की वेशभूषा आज भी मर्दों में वही तहमत, कुर्ता और पगड़ी तथा औरतों में घेरदार घाघरा, पूरी बाजू का लम्बा कुर्ता और दुपट्टा है। इनमें नई पीढी की महिलाएं सलवार-कमीज़ और दुपट्टा तथा नौजवान पेंट-शर्ट पहनने लगे हैं। पुरानी पीढी के लोग जहां साईकिल चलाने से भी डरते थे, आज उनकी नई पीढी के अधिकांश युवकों के पास मोटर साईकिल हैं। पंजाब के कई इलाकों में तो इन पशुपालकों की नई पीढी दूध की सप्लाई के लिए चार पहिया वाहनों का भी इस्तेमाल किया जाने लगा है।
पुरानी पीढी के लोगों का जो मुख्य हुनर को मिलना चाहिये था वह था पशुओं की बीमारियों के प्रति इन लोगों की असीम जनकारी। आज जो डिग्रीधारी डाक्टर और वैद्य किसी पशु के रोग का सही निदान और उपचार नहीं कर पाते जबकि उनमें से अधिकतर पुरानी पीढी के इन गौपालकों के परिवारों के मुखिया बिना किसी वैज्ञानिक उपकरण के केवल देख या हाथ से छूकर रोग ढूंढ लेते हैं। पुरानी पीढी की यह विलक्षण प्रतिभा आश्चर्य चकित कर देने वाली है। कहा जाता है कि गर्भवती गाय के पेट पर हाथ फेर कर ये लोग भविष्यवाणी कर देते थे कि गाय बछड़ा देगी या बछिया। वह भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य होती थी। 
नई पीढी में इस विलक्षण प्रतिभा का हृस होता जा रहा है।अब ऎसे सयानों की संख्या नगण्य हो चाली है जो अपने पशुओं के रोगों का स्वतः इलाज़ कर लें। वैज्ञानिक तौर तरीकों ने इन्हें भी प्रभावित कर सुविधावादी बना दिया है। पूर्व में इन गौपालक परिवारों का संचालन अधिकतर महिलाओं द्वारा ही किया जाता था। घर की आमद-खर्च का हिसाब रखना , परिवार के सदस्यों का उचित भरण-पोषण और पशुओं के चारा आदि की व्यवस्था भी इनकी ही जिम्मे रह्ती थी। पुरूषों का काम गायों की सार-सम्भाल और चरागाह तक ही लाना ले जाना होता था। तब गायों से प्राप्त दूध के विक्रय-विपणन का समस्त कार्य महिलाएं ही किया करती थीं। अब यह कार्य पुरूष करने लगे हैं। हालांकि आर्थिक पक्ष पर महिलाओं का प्रभाव आज भी स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है। 
   फसल की भूसी को कीमती बना दियाः- गौपालक फ़लक शेर बताते हैं कि यहां घग्घर नाली क्षेत्र में पैदा होने वाले चावल की भूसी क्षेत्र के किसान इस लिए जला दिया करते थे कि उनका खरीददार नहीं होता था। उन्हें अगली फसल हेतु खेत खाली करने के लिए भूसी को जलाना पड़ता था। जब ये गौपालक यहां आने लगे तो इस भूसी को इन्होंने चारे के रूप में उपयोग करना शुरू कर दिया। तब से इस भूसी का भरपूर कारोबार हो रहा है। उन्होंने बताया कि चावल की भूसी में गेहूं की तूड़ी जितने ही गुण हैं। उन्होंने बताया कि जब चने के दाम गेहूं से कम थे तब से अब तक पशुओं को यही जिन्स खिलाया जा रहा है।**    

मंगलवार, 29 मार्च 2011

धोरों में दूध की नहर


                                                                                                                                                    
श्रीगंगानगर जिला दुग्ध उत्पादक सहकारी संघ लिमिटेड, "गंगमूल" डेअरी ने श्वेत क्रान्ति को लेकर क्षेत्र में न केवल अहम भूमिका निभाई है बल्कि दुग्ध उत्पादकों और उपभोक्ताओं के हितों के लिए महत्वपूर्ण कड़ी का काम किया है। गंगमूल ने अपने सफ़र में उच्चगुणवत्ता के अनेक आयाम व कीर्तिमान स्थापित किए हैं, वहीं दुग्ध उत्पादकों और उपभोक्ताओं के हित में अनेक योजनाओं को मूर्त रूप दिया है। कुशल अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों के संचालक मण्डल की सूझबूझ से यह सहकारी डेयरी निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर हैं। गंगमूल को अन्तर्राष्ट्रीय मानक आईएसओ 9001 और एचएसीसीपी 15000 योग्यता प्रमाण पत्र हासिल है।
      कुछ वर्ष पूर्व हनुमानग्ढ तथा श्रीगंगानगर जिले के किसान दूध बेचना पंसन्द नहीं करते थे। लेकिन निरन्तर घटती खेती की आय और विभिन्न प्राकृतिक प्रकोप के कारण किसानों का रुझान डेयरी व्यवसाय की ओर बढ रहा है।गंगमूल ने भी दुग्ध उत्पादकों को प्रोत्साहन दिया जिसके नतीजतन इलाके में दूध का कारोबार नए रूप में उभर कर सामने आया। ग्रामीण स्तर पर दुग्ध व्यवसाय निरन्तर आय और स्वावलम्बन का सर्वोत्तम साधन माना गया। गंगमूल ने ग्रामीण क्षेत्रों में दूध व्यवसाय को खूब बढावा दिया। इलाके की श्वेत क्रांति का श्रेय गंगमूल के आलावा ग्रामीणों को भी जाता है जिन्होंने लगन और मेहनत से गंगमूल के वटवृक्ष को सींच कर बड़ा करने में अपना पसीना बहाया।   
      गंगमूल डेअरी की शुरुआत अप्रैल 1979 में दस संकलन केन्दों से एक पथ बना कर 300 लीटर दूध प्रति दिन संकलित कर की गई थी। तत्पश्चात 30 जनवरी 1984 को श्रीगंगानगर दुग्ध उत्पादक सहकारी संघ लि०. हनुमानगढ का पंजीकरण हुआ जिसने आज वट वृक्ष का रूप धारण कर लिया है और इसकी शाखाएं हनुमानगढ व श्रीगंगानगर जिले की समस्त तहसीलों के दूर- दराज़ के गांवों व ढाणियों तक फैली हुई हैं। वर्तमान में गंगमूल के अन्तर्गत 1025 पंजीकृत दुग्ध समितियां कार्यरत हैं। इनमें 271 महिला समितियां हैं। इन समितियों के माध्यम से वर्तमान में करीब डेढ लाख लीटर दूध प्रतिदिन संकलित किया जा रहा है।
श्रीगंगानगर जिला दुग्ध उत्पादक सहकारी संघ लि०."गंगमूल" का मुख्य कार्यालय हनुमानगढ में स्थित है। इसके अधिनस्थ हनुमानगढ जिले के भादरा, नोहर तथा श्रीगंगानगर जिले के सूरतगढ, पदमपुर व घड़साना में दुग्ध अवशीतन केन्द्र कार्यरत हैं। इनमें आसपस के क्षेत्रों का दुग्ध संकलित कर शीर्ष कार्यालय हनुमानगढ को भेजा जाता है।
गंगमूल का मुख्य उद्देश्यः----
गंगमूल का मुख्य उद्देश्य दूर दराज़ के इलाकों में रहने वाले किसानों व दुग्ध उत्पादकों को उत्पादित दूध का उचित मूल्य दिलवाना तथा साथ में नई तकनीकी जानकारियों से अवगत करवा कर उनके दूध उत्पादन में वृध्दि करना है। यह डेयरी दुग्ध उत्पादकों के दूध से उपभोक्ताओं को उच्च गुणवत्ता वाले दुग्ध उत्पाद उचित मूल्य पर उपलब्ध करवा रही है। इनमें दूध, फ्लेवर्ड मिल्क, छाछ, लस्सी, पनीर, घी, मक्खन व दही आदि शामिल हैं।
कैसे जुड़ सकते हैं गंगमूल सेः--
किसी भी क्षेत्र में रहने वाला पशु पालक गंगमूल के अधिनस्थ दुग्ध समिति का सदस्य बन सकता है। बशर्ते उसके पास कम से कम एक दूध देने वाली गाय हो, उसी गांव का रहने वाला हो तथा 90 दिन तक दूध समिति पर दूध दिया हो। सदस्य बनने के उपरान्त वह संघ द्वारा देय सुविधाओं का लाभ उठा सकता हैं। 
दूध का भुगतानः- गंगमूल द्वारा माह में तीन बार दुग्ध उत्पादकों को दूध का भुगतान किया जाता है। डेयरी किसी भी समिति का भुगतान उसके नजदीकी बैंक के माध्यम से करती है। गंगमूल द्वारा दुग्ध उत्पादकों से किसी भी प्रकार का नकद लेनदेन नहीं किया जाता है।
    गंगमूल द्वार देय सुविधाएंः--
1- प्राथमिक पशु चिकित्साः- गंगमूल के अन्तर्गत कार्यरत प्रत्येक दुग्ध समिति पर पशुपालकों के लिए प्राथमिक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध रहती है। प्रत्येक समिति पर कार्यरत सचिव को पशुओं के रोगों के प्राथमिक उपचार हेतु दी जाने वाली समस्त दवाईयों का ज्ञान होता है। बदले में पशुपालकों से नाम मात्र की राशि ली जाती है।
2- टीकाकरणः- पशुओं मे होने वाले विभिन्न संक्रामक रोग, जैसे मुहाव, लंगड़ा बुखार व गलघोटू आदि के लिए समितिवार शिविर लगा कर टीकाकरण किया जाता है ताकि पशुपालकों को आर्थिक हानि न हो तथा टीकाकरण के लिए दूर नहीं जाना पड़े।
3- आपतकालीन पशु चिकित्साः- समिति के सदस्यों को उनका पशु अत्यधिक बीमार होने पर  उन्हें उनके घर ही आपात चिकित्सा उपलब्ध करवाई जाती है। सूचना प्राप्त होते ही विशेषज्ञों की सम्बधित समिति के लिए रवाना हो जाएगी तथा मौके पर पहुंच कर बीमार पशु का इलाज़ शुरु कर देगी। 
4- बांझ निवारण शिविरः-गंगमूल डेयरी की ओर से समितियों की आवश्यकता अनुसार संघ के कुशल चिकित्सकों द्वारा पशु बान्झ निवारण शिविरों का आयोजन किया जाता है।ये शिविर पशुपालकों के हित में लगाए जाते हैं ताकि पशु बांझ नहीं रहें तथा दूध उत्पादकों की आर्थिक स्थिति सुदृढ हो।
5- संतुलित सरस पशु आहारः- दुग्ध उत्पादकों को गंगमूल डेयरी की ओर से उच्च गुण्वत्ता वाला सरस सन्तुलित पशु आहार उनकी देहलीज पर उपलब्ध करवाया जाता है। इसके अलावा उचित मूल्य पर दुग्ध समितियों के माध्यम से आयोडीन नमक का वितरण भी किया जाता है।
6- हरे चारे के बीजः- डेयरी की ओर से समय समय पर उन्नत किस्म के हरे चारे के बीज जैसे, जई, जवार, बरसीम आदि दुग्ध उत्पादकों को उपलब्ध करवाए जाते हैं। इसके अलावा हरे चारे के प्रदर्शन हेतु मिनी किट का निःशुल्क वितरण भी किया जाता है। 
7-पशु खरीद हेतु लोनः- दुग्ध उत्पादक जो समिति के सदस्य हैं उन्हें डेयरी द्वारा बैंक के माध्यम से पशु लोन दिलवाया जाता है। इससे पशु पालकों को अपने दूध के व्यवसाय को बढाने के अवसर प्राप्त होते हैं।
8-संयत्र भ्रमणः- गंगमूल डेयरी से जुड़े दुग्ध उत्पादकों को समय समय पर डेयरी संयत्र का भ्रमण करवाया जाता है। साथ ही दुग्ध उत्पादन में वृद्धि हेतु प्रशिक्षण भी दिया जाता है ताकि उन्हें और अधिक लाभ हो सके तथा वे अन्य सुविधाओं का भी लाभ उठा सकें।
9-अन्य लाभः-गंगमूल डेयरी से जुड़े पशु पालकों को डेयरी द्वारा यूरिया, मोलेसिस ब्लाक, कृमिनाशक दवा तथा सरस मिनरल मिक्श्चर आदि भी उचित मूल्य पर उपलब्ध करवाए जाते है। 
इन तमाम सुविधाओं के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि इन सब वस्तुओं के लिए दूध उत्पादक को कहीं भी नगद राशि नहीं चुकाने पड़ती है। उनके द्वारा देय राशि उनके डेयरी को दिये जाने वाले दूध के भुगतान में समायोजित कर दी जाती है।
सामाजिक सरोकारः- गंगमूल द्वारा अपने दुग्ध उत्पादकों के सामाजिक व शैक्षणिक उत्थान हेतु समिति स्तर पर अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। छात्रवृति के अलावा अनेक प्रतियोगिताएं भी आयोजित कर पशुपालकों के बच्चों को प्रोत्साहित किया जाता है। 
गंगमूल के सहकारी दूध का सफ़रः-गंगमूल को प्राप्त होने वाले दूध का पशु पालक के घर से लेकर विपणन तक का सफ़र पूर्णतया पारदर्शी रहता है। गंगमूल से सम्बन्धित दुग्ध उत्पादक अपना दूध नजदीकी डेयरी के मिल्क कलैक्शन सैन्टर में लेकर आता है। यहां उनके दूध का आधुनिक कम्प्यूट्राइज्ड मशीन से जांच कर मौके पर ही वज़न किया जाता है। उसी समय दुग्ध उत्पादक को उसी कम्प्यूटर से प्राप्त पर्ची दी जाती है जिस पर दूध के सम्बध में पूर्ण ब्यौरा अंकित रहता है।आजकल गंगमूल द्वारा समितियों में ईएमटी, एमसीएस तथा एएमसीयू उपकरण दिए गए हैं, जिनसे अनपढ व्यक्ति भी फैट की जानकारी ले सकता है और इस विधि में पारदर्शिता भी रहती है। इस मिल्क कलैक्शन सैन्टर से यह दूध उसके नज़दीकी "बल्क मिल्क कलैक्शन सैन्टर"(बीएमसी) तक शीघ्र पहुंचाने की व्यवस्था रहती है। बल्क मिल्क कलैक्शन सैन्टर(बीएमसी) मिनी चिलिंग प्लान्ट होता है जिसमें समितियों से प्राप्त दूध की ताज़गी और पौष्टिकता बरकरार रखने के लिए ठंडा रखने की व्यवस्था रहती है। इसके बाद बीएमसी में एकत्र दूध को एक या दो दिन के भीतर नज़दीकी दुग्ध अवशीतन केन्द्र में मिनी टैंकरों के माध्यम से भिजवा दिया जाता है। वर्तमान में हनुमानगढ जिले के भादरा व नोहर तथा श्रीगंगानगर जिले के सूरतगढ, पदमपुर व घड़साना तहसील मुख्यालयों पर अवशीतन केन्द्र स्थित हैं। अवशीतन का दूध बड़े टैकरों द्वारा हनुमानगढ स्थित मुख्य सयंत्र में पहुंचाया जाता है। हनुमानगढ के आसपास के बीएमसी तथा मिल्क कलैक्शन सैंटरों का दूध सीधे मुख्य सयंत्र में पहुंचता है। मुख्य सयंत्र में कैन तथा दूध टैंकरों से आने वाले दूध की कड़ी जांच की जाती है। सबसे पहले आने वाले दूध का सैंपल लेकर यह जांचा जाता है कि इसमें कोई भी ऎसा तत्व तो मौज़ूद नहीं है जो मिश्रण के बाद दूसरे दूध को खराब कर दे। इसकी पौष्टिकता की जांच के बाद इसे फिल्टर किया जाता है। फिल्ट्रेशन के विभिन्न चरणों से गुजरने के बाद घी, दूध, पाउडर, दही, छाछ, लस्सी, पनीर आदि उत्पाद की प्रोसेसिंग अलग अलग की जाती है।
विपणनः- श्रीगंगानगर जिला दुग्ध उत्पादक सहकारी संघ का दूसरा स्तम्भ, दुग्ध विपणन भी मजबूती से कार्य कर रहा है। गंगमूल द्वारा दुग्ध उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं को उच्च गुणवत्ता तथा उचित मूल्य पर सरस के विभिन्न उत्पाद उनके नजदीकी सरस मिल्क बूथ पर उपलब्ध करवाए जा रहे हैं। गंगमूल द्वारा दिल्ली शहर के लिए सरस दूध की पैकिंग आपूर्ती रेफ्रिजरेटिड वाहन से निरन्तर की जा रही है। 
इसके अलावा क्षेत्र में स्थित भारतीय सेना के जवानों को उनकी मांग के अनुसार दूध व दूध उत्पाद उपलब्ध करवाए जा रहे हैं। श्रीगंगानगर व हनुमानगढ जिला मुख्यालय सहित विभिन्न मंडियों में दुग्ध वितरण का कार्य पूर्णतया कोल्ड चेन मेन्टेन कर किया जा रहा है। इसके अलावा विपणन कार्य योजना के अन्तर्गत गंगमूल द्वारा अन्य कई कदम उठाए जा रहे हैं। स्वास्थ्यवर्धक दूध के बारे में उपभोक्ताओं को जानकारी प्रदान करने के लिए समय समय पर "दूध का दूध- पानी का पानी" कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। स्कूल, कालेज तथा सामान्य नागरिकों को आमंत्रित कर समय समय पर प्लान्ट का भ्रमण करवा कर गंगमूल की कार्यप्रणाली से अवगत करवाया जाता है। इसके अलावा अन्य संस्थाओं द्वारा अयोजित कार्यक्रमों में उत्पादों की प्रदर्शनी लगा कर उनकी ख़ासियतों के बारे में बताया जाता है तथा विभिन्न मेलों मे स्टाल लगा कर उत्पादों का प्रचार किया जाता है। 




स्वच्छ दुग्ध उत्पादन पर बलः- ताजगी और शुद्धता को प्रमुखता देते हुए गंगमूल ने हर वर्ष आधुनिकीकरण को अपना प्रमुख लक्ष्य बनाया। स्वच्छ दुग्ध उत्पादन हेतु गंगमूल द्वारा समय समय पर विभिन्न कार्यक्रम चलाए जाते हैं। इसी क्रम में दुग्ध उत्पादकों को निरन्तर प्रशिक्षण दिया जाता है, वहीं उन्हें स्टील के बर्तन व साफ किट का वितरण भी किया जाता है। इसके अलावा प्रत्येक अवशीतन केन्द्र तथा मुख्य सयंत्र में कैन वाशर स्थापित हैं। मिल्क कलेक्शन सैन्टर में एकत्र दूध को बीएमसी, अवशीतन केन्द्र या मुख्य सयंत्र तक पहुंचाने के लिए वैक्टीरिया मुक्त कैन का प्रयोग किया जाता है। कैन से दूध परिवहन करने के बाद हर बार उनकी धुलाई सफाई का कार्य अवशीतन केन्द्रों व मुख्य सयंत्र के कैन वाशर पर होता है जो दूध की स्वच्छता का आरम्भिक चरण है।  ***************************************************

सोमवार, 28 मार्च 2011

प्रसाद ( लघु कथा)


 उस दिन मंगलवार था। हनुमान मंदिर के नज़दीक एक देहाती ठर्रा पी कर बेसुध पड़ा था। तभी एक पुलिस कान्स्टेबल भी उधर आ धमका। बेसुध पड़े शराबी को देख कर वह गुर्राया-" कौन है... बे तूं ?"
शराबी ने आंखे झपझपाईं। झुरझुरी ली। बड़ी मुश्किल से उठ कर बैठ गया। मौके पर भीड़ जमा हो गयी। कान्स्टेबल ने तैश में आकर एक लात शराबी की कमर में दे मारी। फिर उसे हाथ से उठाने का नाटक करते हुए, उसकी जेब टटोली। शराबी की जेब खाली पाकर कांन्स्टेबल और भी तैश में आ गया। शराबी को तीन-चार घूंसे जमा कर बोला-" स्साला... मंगल के रोज़ भी दारु पी कर आ गया।"
फिर शराबी को वही छोड़ वह कांन्स्टेबल धन्ना हलवाई की दुकान पर जा रुका-"अरे भाई धन्ना..पांच रुपये का प्रसाद देना !"
" अरे ! मालिक...आज पांच रुपये का ही क्यों ? हर मंगलवार को तो ग्यारह रुपये का प्रसाद चढाते हैं आप ?"      हलवाई ने आंखे तरेर कर पूछा।
" लेकिन आज तो आधा ही प्रायश्चित करना है। हाथ मारा.. लेकिन जेब खाली थी। इसलिए...आज पांच का ही दो!" इतना कहते हुए कांन्स्टेबल ने पांच रुपये का सिक्का धन्ना हलवाई की तरफ उछाल दिया।****

मंगलवार, 15 मार्च 2011

अपनों के बीच का सुख


 मेरे शहर के एक सरकारी दफ्तर की कैंटीन में अपने दोस्तों के साथ
 बैठा मैं चाय पी रहा था। कड़ाके की ठंड थी। चाय की चुस्की के साथ
 मैं दफ्तर की चारदीवारी में  चारों तरफ हरेभरे पेड़- पौधों को निहार रहा 
 था।उसी समय एक गडरिया अपनी भेड़ बकरियों को हांकता हुआ चारदीवारी 
 में घुस आया। उसकी भेड़ बकरियां चारों तरफ फैल कर पेड़ पौधों के पत्तों को
 खाने लगी। इस बीच एक हट्टा कट्टा बकरा रेवड़ से दूर शीशम के पेड़ 
 की तरफ चला गया। वह शीशम के पेड़ के तने पर अपने आगे वाले पैर
 टिका कर मज़े से पेड़ की हरी-हरी पत्तियां खाने लगा। 
 भेड़ बकरियों को हरियाली उजाड़ते देख सरकारी दफ्तर का चपरासी 
 गडरिये पर गुस्से से चिल्लाने लगा। इस पर गडरिया घबरा गया।
 उसी समय वह अपनी भेड़ बकरियों को हांक कर चारदीवारी से बाहर
 उत्तर दिशा की ओर चला गया। लेकिन जाते हुए वह उस बकरे को भूल
 गया जो रेवड़ से अलग शीशम के पेड़ की पत्तियां खा रहा था ।  उस 
 बकरे को भी रेवड़ के वहां से जाने का पता नहीं चला। बकरे ने पेट भर
 हरी पत्तियां खा कर अपने आगे वाले पैर  पेड़ से नीचे उतारे। इसके 
 बाद वहां देखा जहां उसने रेवड़ और गडरिये को छोड़ा था। रेवड़ और
 गडरिये को वहां से गायब पाकर वह घबरा गया।वह चिल्लाता हुआ 
 चरदीवारी के गेट की तरफ भागा। गेट के पास जाकर उसने
 पैरों के निशान देखे, उन्हें सूंघा और मिमियाता हुआ उत्तर दिशा की तरफ 
 दौड़ गया। तब वहां मौज़ूद लोग उस जीव की अपने परिवार और कुटुम्ब
 के प्रति आसक्ति और लगाव को देख कर दंग रह गए। सब के लिए 
यह एक अद्भुत नज़ारा था। 
॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒॒