शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

लाचार सी जिन्दगी का सफ़र


     


                 

 दिन भर काम करने के बाद काफ़ी थकान महसूस करता हूं। खिड़की से बाहर झांक कर देखा, सांझ ढलने लगी है। अन्धेरा गहराने लगा है। सारे काम निपट गए तो सोचा, आज जल्दी घर लौट जाऊं। घर जाकर बीवी-बच्चों के साथ कुछ समय बिताऊं, ताकि उन्हें भी अच्छा लगे और मेरा भी मूढ बदल जाए। अपनी टेबल पर बिखरे काग़ज समेटता हूं। आफिस की खिड़कियां-दरवाजे बन्द कर जीने से नीचे उतर कर सड़क पर आ जाता हूं। बाज़ार में काफ़ी चहल-पहल दिखाई देती है। दुकानों में खरीददारों की भीड़ है। काफ़ी लोग यहां वहां खाने-पीने और बतियाने में मशगूल हैं। आज घर जल्दी जा रहा हूं, शायद इस लिए यह नज़ारा देखने को मिल रहा है। काम की व्यस्तता में ही यह दौर कब आ गया मुझे पता ही नहीं चल पाया।
घर जाने के लिए आटो की तलाश करने लगता हूं। मग़र गांधीनगर की तरफ़ जाने वाला आटो नहीं मिलता। परेशान होकर पैदल ही गांधीनगर की तरफ़ चल देता हूं, यह सोच कर कि रास्ते में जहां से आटो मिलेगा, वहीं से सवार हो जाऊंगा। अपनी के एहसास के साथ अपनी उम्र का स्मरण हो आया। उम्र की पचास की दहलीज पार कर चुका हूं। पचास के उम्र के बाद क्या इन्सान के काम करने की क्षमता कम हो जाती है। यह प्रश्न मेरे मन को कुरेदने लगता है। इस पल मुझे अपने दादा की बातें याद आने लगती हैं। वे अपनी उम्र के किस्से बयान करते हुए कहा करते थे-"बर्खुरदार हमारे जमाने में पचास साल की उम्र में भी एक क्विंटल वजन को खिलौने की तरह उठा लिया करते थे। आज के छोकरों को देखो! पच्चीस साल की उम्र में, पच्चीस सेर गेंहू उठा कर,आटा चक्की तक ले जाने में ही उनका दम फूल लगता है। चार कदम पैदल चलते हैं तो टांगे दुखने लगती हैं, बदन ऎंठने लगता है। तब दादा जी अस्सी बसन्त देख चुके थे। उनके सुनाए और बहुत से किस्से मेरे स्मृति पटल पर तैरने लगते हैं। अचानक मेरी तन्द्रा भंग हो जाती है। अचानक आसमान पर बिजली कौन्धने लगी। मैंने आसमान की और सिर उठाकर देखा तो आसमान पर छाए बादलों से बून्दे बरसने लगी। मौसम कब खराब हो गया पता ही नहीं चला। इस पर मैं तेज-तेज चलने लगा। मेरे कदम तेजी से घर की ओर बढने लगे। रास्ते में आटो नहीं मिला। गान्धी नगर चौराहे की स्ट्रीट लाईट में अपनी हाथघड़ी पर नज़र दौड़ाई। साढे सात बज चुके थे। कई बरसों बाद आज आफ़िस से घर जल्दी लौट रहा हूं। सोचा अभी तो गली में बच्चे खेल रहे होंगे। इसी उधेड़बुन में घर के पास पहुंच जाता हूं। ठिठक कर देखता हूं। गली सुनसान पड़ी है। दूर तक कहीं कोई दिखाई नहीं देता। न लुकाछिपी का खेल खेलते बच्चे और न ही घरों के बाहर बतियाती औरतें नज़र आती हैं। दो तीन आवरा कुत्ते इधर-उधर घूमते नज़र आते हैं बस। मन में किसी अनिष्ट की आंशका पैदा होती है। गली सुनसान क्यों है ? दूर-दूर तक किसी का स्वर सुनाई क्यों नहीं दे रहा ?मैं अपने दोनों कानों में ऊंगलियां घुमा कर सुनने का प्रयास करता हूं। आंखें मल कर गली के नुक्कड़ तक दृष्टी घुमाता हूं। कहीं कोई इन्सान नज़र नहीं आता। 
फिर घरों की खिड़कियों के पारदर्शी  शीशों से रंगबिरंगी रोशनियां नज़र आने लगीं। फिर घरों के भीतर से कुछ आवाज़ें बाहर की हवा में तैरने लगीं। मुझे अब समझ में आने लगा। शायद टीवी पर कोई सीरियल चल रहा है। लोग घरों में दुबके हैं।
मैं घर के चबूतरे पर चढ कर लोहे का गेट खोलता हूं। पोर्च के नीचे खड़ा होकर घन्टी का बटन दबाता हूं। मुझे अपने घर के भीतर भी टीवी पर किसी सीरियल चलने की आवाज़ सुनाई देती है। मैं कई वर्षों बाद आज जल्दी घर लौटा हूं। ये एहसास में मेरे साथ साथ चल रहा है। 
   मैं एक बार फिर घन्टी का बटन दबा कर किवाड़ को भी थपथपाता हूं। सोचा शायद टीवी सीरियल की आवाज़ में, सुनन्दा को घन्टी की आवाज सुनाई नहीं दी। कुछ क्षणों बाद सुनन्दा दरवाजा खोलती है। सुनन्दा मुझे देख कर अनमने भाव से कहती है-"आज इतनी जल्दी आ गए।" इतना कहते ही वह भीतर की तरफ़ लाबी की ओर घूम गई। मानो भीतर कोई जरूरी काम हो। मैं दरवाजा बन्द कर भीतर आ जाता हूं। दोनों बच्चे और सुनन्दा मंत्रमुग्ध टीवी देख रहे हैं। किसी को मेरे जल्दी घर आने का एहसास नहीं हुआ। मैं बैडरूम में कपड़े बदल कर सुस्ताने लगता हूं। जेब से सिग्रेट निकाल कर सुलगा लेता हूं। धुआं छोड़ते हुए फिर सोच में डूब जाता हूं।
अचानक किसी के जोर-जोर से रोने की आवाज सुनाई देती है। मेरी तंत्रा भंग हो जाती है। मैं भयाक्रांत सा उठ कर बैठ जाता हूं। लेकिन कमरे चल रहे टीवी सीरियल की आवाज़ सुनाई दी तो मन शान्त हुआ। सुनन्दा और बच्चे अब भी टीवी सीरियल देखने में मग्न हैं। मैं आश्वस्त होकर बैड पर फिर से टेक लगा कर सुस्ताने लगता हूं। थकावट के साथ अब मुझे भूख का एहसास भी होने लगता है। लेकिन सुनन्दा और बच्चे अब भी टीवी सीरियल देख रहे हैं। मैं सोचता हूं, इन्हें भूख क्यों नहीं महसूस हो रही। मैं थकान और भूख से बेचैन होकर सोफे पर बैठ जाता हूं। आफिस के काम से निवृत होकर जल्दी घर आया था, यह सोचकर कि गली में खेल रहे बच्चों के साथ थोड़ी सी चुहलबाजी करूंगा। उनके साथ खेलूंगा, क्रिकेट, गिल्ली डंडा, बैडमिटंन या कुछ और। फिर घर आ कर सुनन्दा से प्यारभरी बातें, बच्चों के साथ मस्ती। फिर आराम से खाना खाकर सो जाऊंगा। लेकिन टीवी सीरियल अब भी चल रहा है। बच्चों को पता ही नहीं चला कि उनके पापा घर आ गए। 
भूख और थकान के कारण सीरियल खत्म होने की प्रतीक्षा अब असहनीय और बोझिल सी लगने लगी। जी में आया कि मैं ऊंची आवाज में पुकारूं और कहूं "सुनन्दा अब बन्द करो इस टीवी को! लेकिन थकान के कारण मैं निश्चेतन, निश्चल सा बैठा ही रहता हूं।
     अचानक टीवी का स्वर धीमा हो जाता है। रसोई में बर्तनों की खनखनाहट सुनाई देती है। सीरियल खत्म हो गया शायद। सोनू और दीपा बैड रुम में प्रवेश करते हैं।
"पापा" सोनू मेरी ओर मुखातिब होकर कहती है।
"हूं" थका सा स्वर मेरे होठों से प्रस्फुटित होता है। 
"पापा, टीवी पर अभी जो सीरियल देखा उसमें एक बहुत बड़ा सा घर था। सुन्दर खिड़कियां, पर्दे। बहुत बड़ी लाबी, ड्राईगरूम,बाहर लान में हरी घास और फूलों की क्यारियां।
"अच्छा" मैं केवल औपचारिकतावश दीपा की ओर देखता हूं।
"पापा ! उसमें हमारे से भी बड़ा सोफासैट था। यह सोनू का स्वर था।
  मैंने सोनू की इस बात पर कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की। उसी समय रसोई घर से सुनन्दा की आवाज़ सुनाई देती है-"सुनो..सोफा मरम्मत करने वाला मिस्त्री आज भी नहीं आया ! हमारे सोफे का फोम जगह-जगह से फट चुका है।
 सुनन्दा का स्वर मेरे कानों में झनझनाहट पैदा करता है। आफिस से जल्दी घर लौटा था किसी सुकून की ख़ातिर। मन ही मन ख़ीज़ सी होती है। रसोई तक मेरी थकी हुई आवाज़ पहुंच भी पाएगी या नहीं, यह सोच कर मैं चुप्पी साधे रहता हूं। लेकिन सुनन्दा रसोई में खाना बनाते हुए फिर से बोलने लगती है।
"आज आप पलम्बर के पास नहीं गए ! बाथरूम की पाईप लीक होने से आज फिर पानी की टंकी खाली हो गई। फर्श पर पोचे लगाने के लिए शर्मा जी के घर से पानी लाना पड़ा।"
  मैं निरुत्तर, निढाल मौन साधे बैठा रहता हूं। कुछ देर बाद सुनन्दा खाना परोस देती है। थकान व जकड़न के कारण बड़ी मुश्किल से उठता हूं। हाथ धोकर खाना खाना खाने लगता हूं। सुनन्दा आदतन खाने के साथ-साथ बोलती रहती है। वह कहती है-"आज फिर मौसम खराब है।बरसात हुई तो छतें टपकेंगी। परसों भी ड्राईंगरूम में रखा सारा सामान भीग गया। मैं खाना खाते-खाते जबड़े को रोक लेता हूं। सुनन्दा को समझाने का प्रयास करता हूं-"देखो सुनन्दा तुम समझने की कोशिश करो। घर के छोटे-छोटे काम करवाने में वक्त लगता है!"
"इतने बरसों से समझने का प्रयास ही तो किया है।"
"वक्त आने पर सब काम हो जाएंगे !" मैं बहस को विराम देने का प्रयास करता हूं। लेकिन सुनन्दा इस विषय में बहस जारी रखने के मूढ में है। वह बर्तन समेटते हुए कहती है-"मेरी समझ में नहीं आता कि वह वक्त आखिर कब आएगा? शायद अगले जन्म में।" वह बर्तन समेटती हुई रसोई में चली जाती है। उफ ! मैं अपने आप से प्रश्न करता हूं। मैं आज आफिस से जल्दी किस लिए आया था? बेबस होकर शून्य में झांकने लगता हूं।
रात को सभी गहरी नींद में सो गए। थकान के बावजूद मुझे नींद नहीं आ रही है। उनीन्दे ही मैं अपने दादा जी की बातें याद करने लगता हूं। वे खूब शारीरिक परिश्रम करते थे और थकान के बाद गहरी नींद सोते थे। लेकिन मेरी यह कैसी थकान है कि नींद मुझ से कोसों दूर चली गई। मैं उस नींद और इस नींद पर मन्थन करने लगता हूं। मेरी इस थकान पर भौतिकता का बोझ लदा है। शायद परम्परागत बोझे और भौतिकता के बोझे में यहीं अन्तर है। जरूरतों का बोझा शायद एक क्विंटल वाली बोरी से कहीं ज्यादा भारी है। टीवी, फ्रिज, कूलर, एसी और न जाने कितनी भौतिक चीजों का बोझा आज इन्सान की पीठ पर हर समय लदा रहता है। परिवार का प्रत्येक सदस्य जीवन के समर में अपेक्षाओं, आकांक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं के चक्रव्यूह में इस कदर फंस चुका है कि उसे बाहर निकलने का कोई रास्ता ही नज़र नहीं आता। इस चक्रव्यूह में फंस कर इन्सान को कई बार अपनी भावनाओं की हत्या कर आत्म सम्मान से समझौता करना पड़ता है। इस चक्रव्यूह को भेदने की शक्ति क्षीण हो जाती है। भले ही इस चक्रव्यूह का भारीपन दिखाई नहीं देता मग़र इसे महसूस किया जा सकता है। इस बोझ को ढो रहा इन्सान शायद समय से पहले बूढ़ा जाता है।
उनींदे ही मुझे लगता है मानों मेरा तर्क सुनकर दादा जी का चेहरा गम्भीर हो गया है। उसी पल वे मुझे गीता का सन्देश सुनाते हैं।-"कर्मण्ये वाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचनन। फिर मैं दूसरे दिन के काम की उहापोह में सोने का प्रयास करता हूं।
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